SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भैया भगवादास १५५ mARA इनकी बात सुनिये ये जीव को कितना सुख देती हैं। तव इन्द्रिाएं अपन अपन गुणों का यगान करती है, वर्णन बड़ा सुन्दर है। _भाषा बहुत सरल तथा अर्थ सुबोध है यह काव्य १५२ दोहों में समाप्त हुआ है ? इफ दिन एक उद्यान में, बेटे श्री मुनिराज । धर्म देशना देत हैं, भव जीवन के काज ।। चली वात व्याख्यान में, पांचों इन्द्रिय दुष्ट । त्या त्या ये दुःख देत है, ज्यों ज्यों कीजे पुष्ट ।। विद्याधर बोल तहाँ, कर इन्द्रिग को पक्ष । स्वामी हम क्यों दुष्ट हैं, देखो यात प्रत्यक्ष ।। सब न पहिले नाक अपना गुण वर्णन करती है इसका मनोरंजन व्याख्यान मुनिए ? नाक फहै प्रभु मैं बड़ो, और न पड़ी कहाय । नाय रहे पत लोक में, नाक गए पत जाय ॥ प्रथम वदन पर देखिए, नाक नवल आकार । संदर महा सुहावनी, मोहित लोक अपार ॥ सुख विलर्स संसार का, सो सब मुझ परसाद । नाना वृक्ष सुगंधि को, नाक कर भास्वाद ॥ नाक की इस घड़ाई को सुनकर कान क्या कहता है इसे भी ध्यान देकर सुनिए ?.. फान कहै रे नाक सुन, तू कहा करै गुमान । .. जो चाकर भागे चले, तो नहिं भूप समान ॥ · नाक सुरनि पानी भरे, वहे श्लेपम अपार । गंधनि करि पूरित रहै, लाज नहीं गँवार ॥ .
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy