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भैया भगवादास
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इनकी बात सुनिये ये जीव को कितना सुख देती हैं। तव इन्द्रिाएं अपन अपन गुणों का यगान करती है, वर्णन बड़ा सुन्दर है।
_भाषा बहुत सरल तथा अर्थ सुबोध है यह काव्य १५२ दोहों में समाप्त हुआ है ? इफ दिन एक उद्यान में, बेटे श्री मुनिराज ।
धर्म देशना देत हैं, भव जीवन के काज ।। चली वात व्याख्यान में, पांचों इन्द्रिय दुष्ट ।
त्या त्या ये दुःख देत है, ज्यों ज्यों कीजे पुष्ट ।। विद्याधर बोल तहाँ, कर इन्द्रिग को पक्ष ।
स्वामी हम क्यों दुष्ट हैं, देखो यात प्रत्यक्ष ।।
सब न पहिले नाक अपना गुण वर्णन करती है इसका मनोरंजन व्याख्यान मुनिए ? नाक फहै प्रभु मैं बड़ो, और न पड़ी कहाय ।
नाय रहे पत लोक में, नाक गए पत जाय ॥ प्रथम वदन पर देखिए, नाक नवल आकार ।
संदर महा सुहावनी, मोहित लोक अपार ॥ सुख विलर्स संसार का, सो सब मुझ परसाद ।
नाना वृक्ष सुगंधि को, नाक कर भास्वाद ॥
नाक की इस घड़ाई को सुनकर कान क्या कहता है इसे भी ध्यान देकर सुनिए ?..
फान कहै रे नाक सुन, तू कहा करै गुमान । .. जो चाकर भागे चले, तो नहिं भूप समान ॥ · नाक सुरनि पानी भरे, वहे श्लेपम अपार । गंधनि करि पूरित रहै, लाज नहीं गँवार ॥ .