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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
कोउ तो करे किलोल भामिनी सो रीमिरीझि,
वाही सों सनेह करै काम रंग अंग में। कोउ तो लहै अनंद लक्ष कोटि जोरि जोरि,
लक्ष लक्ष मान कर लच्छि की तरंग में। कोउ महा शूर वीर कोटिक गुमान करै,
मो समान दूसरो न देखो कोऊ जंग में। कहें कहा 'भैया' कछु कहिवे की बात नाहि,
सब जग देखियतु राग रस रंग में।
कोई तो कामिनी के प्रेम में मस्त होकर काम के रंग में डूबा हुआ उसी के साथ किलोलें कर रहा है।
कोई लाखों रुपये जोड़कर उसीका आनन्द ले रहे हैं और लक्ष्मी की तरङ्गों में डूबे हुए लाखों तरह का घमंड कर रहे हैं।
___कोई बड़े शूरवीर करोड़ों तरह का गुमान करते हुए कह रहे हैं कि जंग के मैदान में मेरी बरावर बहादुर कोई दूसरा नहीं है।
ऐसी हालत में हे भाई! किसी से क्या कहना कोई कहने की बात ही नहीं है सारा संसार रस रङ्ग के राग में फँसा हुआ है।
पंचेन्द्रिय सस्वाद यह पाचों इन्द्रियों का बड़ा सुन्दर सम्वाद है । साधु महाराज उद्यान में बैठे हुए धर्म उपदेश दे रहे थे। एक समय उपदेश में उन्होंने कहा-ये पांचों इन्द्रियां बड़ी दुष्ट हैं इनका जितना ही पोपण किया जावे ये उतना ही दुःख देती हैं। तब एक विद्याधर इन्द्रियों का पक्ष लेते हुए बोला-महाराज इन्द्रिएँ दुष्ट कैसी हैं। .