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भैया भगवतीदास
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हे भाई! ये सव बातें और भेप तो कोरे जड़ हैं विना श्रात्म ज्ञान के केवल इनसे हो मुक्ति नहीं मिल सकती हैं। सच्चे ब्रम्हचारी का स्वरूप-- पंचन सो भिन्न रहैं कंचन ज्यों काई तजे,
रंच न मलीन होय जाकी गति न्यारी है। फंचन के कुल ज्यों स्वाभाव कीच छुवै नाहि,
बसै जल मांहि पैन ऊर्द्धता विसारी है। अंजन के अंश जाके वंश में न कह दीखे,
शुद्धता स्वभाव सिद्ध रूप सुखकारी है। शान के समूह आत्म ध्यान में विराजि रह्यो,
शान दृष्टि देखो 'भैया' ऐसो ब्रह्मचारी है। ___ कीचड़ में पड़े हुए सोने की तरह जो पांचों इन्द्रियों के भोग विलासों से सदा ही अलग रहता है थोड़ा भी मलिन नहीं होता ऐसी जिसकी निराली चाल है।
जिस तरह सोने के कुल का स्वभाव है कि वह कीचड़ में रहने पर भी उसे नहीं छूता और कमल जल में रहने पर भी हमेशा जल से ऊपर ही रहता है उसी तरह जिसके अन्दर कर्म रूपी अंजन कहीं भी नहीं दिखता और जो अपने सुखमय शुद्ध सिद्ध स्वभाव को कभी नहीं छोड़ता है। ऐसा ज्ञान और ध्यान में मग्न रहने वाला चैतन्य ही 'ज्ञान दृष्टि' से सचा ब्रह्मचारी है।
सारा संसार राग रंग में मस्त हो रहा है, कुछ कहने सुनने की बात नहीं रही, यहाँ कौन किसकी सुनता है।