SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ प्राचीन हिन्दी जैन कवि wwww मेरा ज्ञायक (संसार को जानने वाला) स्वभाव भूत, भविष्यत वर्तमान तीनों कालों में मेरे पास है और जो मुझमें अनंत गुण हैं वे भी हमेशा मेरे अन्दर रहते हैं। तीनों कालों में मेरा ऐसा शुद्ध रूप, स्वरूप है। ज्ञान दृष्टि से देखने पर उसमें किसी दूसरे की छाया भी नहीं है। खूब पढ़ा अध्ययन किया परन्तु बिना श्रात्म रहस्य के पहिचाने उसका क्या परिणाम होता है इसका वर्णन सुनिए । जो पै चारों वेद पढ़े रचि पचि रीझ रीझ, पंडित की कला में प्रवीन तू कहायो है। धरम व्योहार ग्रंथ ताहू के अनेक भेद, . ताके पढ़े निपुण प्रसिद्ध तोहि गायो है ॥ श्रातम के तत्व को निमित्त कहूं रंच पायो, तोलों तोहि ग्रंथनि में ऐसे के बतायो है। जैसे रस व्यंजनि में करछी फिरै सदीच, मूढ़ता सुभाव सों न स्वाद कछु पायो है ॥ तूने बड़े परिश्रम और प्रेम के साथ चारों वेदों की पढ़ लिया और पंडित की कला में तू चतुर कहलाने लगा। व्यवहार धर्म ग्रंथों के अनेक भेद हैं उनको भी पढ़कर तू संसार में अत्यंत निपुण और प्रसिद्ध हो गया। किन्तु जब तक तूने आत्म तत्व के रहस्य जानने का कुछ भी ज्ञान प्राप्त नहीं किया है तव तक तुझे ग्रंथों में इसी तरह जड़ बतलाया है जैसे कलछी हमेशा अनेक रसों के भोजनों में पड़ती है परन्तु अपने जड़ता स्वभाव के कारण वह कुछ भी स्वाद नहीं पाती है।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy