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________________ भैया भगवतीदास सुविद्ध-हे चैतन्य राजा सुनो। चैतन्य हे सुबुद्धि रानी! कहो क्या कहती हो। सुबुद्धि-हे राजा! मैं बार बार क्या कहूं तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती। . चैतन्य-सुबुद्धि-लज्जा कैसी ? मैं कुछ नहीं जानता। मैं तो यहाँ इन्द्रियों के विपय सुख राज्य में मग्न हो रहा हूँ। सुबुद्धि । अरे मूर्ख ! तूने अनंत वार विपय सुखों का सेवन किया परंतु तुझे आज तक तृप्ति नहीं तू बड़ा कामी है। तूने मनुष्य जन्म और आर्यक्षेत्र को पाया है। इस उत्तम जन्म को पाकर भी तू सावधान नहीं होगा और आत्म कल्याण नहीं करेगा तो हे चैतन्य तेरा ही बिगाड़ होगा। मेरा क्या जाता है। सुमति रानी के उपदेश से श्रात्मज्ञान होने पर चैतन्य अपनी शक्ति का विचार करता हुश्रा कहता हैजैसो वीतराग देव कहयो है स्वरूप सिद्ध, तैसो ही स्वरूप मेरा यामें फेर नाहीं है। श्रष्ट कर्म भाव की उपाधि मो मैं कहूं नाँहि, अष्ट गुण मेरे सो तो सदा मोहि पांही हैं। ज्ञायक स्वभाव मेरो तिहूं काल मेरे पास, गुण जो अनंत तेऊ सदा मोहि माहि है। ऐसो है स्वरूप मेरो तिहुं काल सुद्ध रूप, ज्ञान दृष्टि देखते . न दूजी परछांही है। जैसा वीतराग देव ने मेरा सिद्ध के समान स्वरूप बतलाया है वैसा ही मेरा स्वरूप है इसमें थोड़ा सा भी अंतर नहीं है। मेरे अन्दर अष्ट कर्मों के भाव की उपाधि कहीं भी नहीं है मेरे सुख, ज्ञान, शक्ति रूप अष्ट गुण सदा ही मेरे पास हैं।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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