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________________ १४६ प्राचीन हिन्दी जैन कवि केतो काल ‘वीत गयो, अजहू न छोर लयो, कहूं तोहि कहा भयो ऐसो रीझयतु है। श्रापुही विचार देखो कहिवे को कौन लेखो,. .श्रावत परेखो तातें कहयो कीजियतु है ॥ हे मेरे समझदार स्वामी ! सुनो। तुम कुछ अपने नफे टोटे की तरफ भी देखते हो। यह कौनसा व्यापार तुमने इस तरह अपने हाथ में लिया है। दश दिन का तो यह विपय सुख है परन्तु इसका कितना दुःख है देखो! इसके बदले में नर्क में पड़कर कवतक जलना पड़ता है। ___इस विपय सुख में मस्त हुए कितना काल वीत चुका परन्तु अव तक होश नहीं आया अरे यह क्या हो गया है कोई किसी पर इस तरह भी रीझता है। आपही विचार देखिए। इसमें मेरे कहने की क्या बात है। आपको इस तरह देखकर मेरे दिल में चोट लगती है इसीलिए मैं आपसे कह रही हूँ। अब चेतन्यराजा और सुमति रानी का मनोरंजक सुनिए और आनन्द लीजिए! सुनो राय चिदानंद, कहो जु सुबुद्धि रानी, कहै कहा वेर वेर नैकु तोहि लाज है। . कैसी लाज ? कहो कहाँ हम कछु जानत न, ____ हमें इहां इंद्रिनि को विषै सुख राज है॥ अरेमूढ़ ! विपै सुख सैये तू अनंती वेर, __ अजहूं अघायेनाहिं कामी. शिरताज है। मानुप जनम पाय, प्रारज सुखेत अाय, जो न चेतै हंसराय तेरो ही अकाज है॥
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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