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________________ १४४ प्राचीन हिन्दी जैन कवि दिन रात संसार के धंधे में ही बेहोश रहता है परन्तु कुछ प्रयत्न सफल नहीं होता। हे चैतन्य राजा! तुमने यह कौनसा मार्ग ग्रहण किया है। देखिये इस पद्य में वह चैतन्य को किस प्रकार फटकार रही है। कौन तुम ? कहाँ आए ? कौने वैराये तुमहिं, काके रस राचे कछु सुध हू धरतु हो। कौन है ये कर्म जिन्हें एक मेक मानि रहे, अजहूं न लागे हाथ भांवरि भरतु. हो। घे दिन चितारो जहाँ पीते हैं अनादि काल, कैसे कैसे संकट सह हू विसरतु हो। तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हों, तीन लोक नाथ है के दीन से फिरतु हो । तुम कौन हो ? कहाँ से आये हों! तुम्हें किसने बहका रक्खा है और तुम किसके रस में मस्त हो रहे हो इस बात का भी तुम कुछ खयाल रखते हो। , ये कर्म कौन हैं जिन्हें तुम अपने से एक मेक मान रहे हो ये तुम्हारे हाथ तो अव तक भी नहीं आए परन्तु तुम इनके फंदे में पड़कर संसार में चक्कर लगा रहे हो। उन दिनों की याद करो जहाँ अनादि काल तक कैसे २ संकटों को सहन किया है क्या श्राज तुम उन्हें भूल रहे हो। तुम तो बड़े चतुर हों परन्तु यह तुमने कौनसी चतुराई की है.जो तीन लोक के नाथ होकर भी भिखारी की तरह फिरते हो। श्राम रहस्य में मस्त होने के लिए कैसा प्रलोभन दिया जा रहा है।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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