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रहा था जब उस राज्य का सुखा का दिग्दर्शन कर रहे हो ।
भैया भगवतीदास
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मोह उसका सेनापति है क्रोध कोतवाल है और लोभ मंत्री है जो उसे सदा से ही लूट रहा है।
कर्म का उदय रूपी काजी है मान उसका अर्दली बना है कामदेव उसका मुन्शी बनकर रहता है।
इस तरह की राजधानी में रहकर वह अपने गुणों को भूल रहा था जब उसे अपना ध्यान आया तब उसने ज्ञान को ग्रहण किया और आत्म राज्य का सुख भोगने लगा।
सुमति रानी चैतन्य की अज्ञानता का दिग्दर्शन कराती हुई उसे संबोधित करती हुई कहती है कि हे चैतन्य राजा तुम कहाँ जा रहे हो। ज्ञान प्रान तेरे ताहि नेरे तो न जानत हो,
श्रान प्रान मानि भान रूप मान रहे हो। श्रातम के वंश को न अंश कहूं खुल्यो कीजे,
पुग्गल के वंश सेती लागि लहलहे हो। पुग्गल के हारे हार पुग्गल की जीते जीत,
पुग्गल की प्रीति संग कैसे वह वहे हो। लागत हो धाय धाय, लागे न कळू उपाय,
सुनो चिदानंद राय कौन पंथ गहे हो।
तू अपने भीतर अपने ज्ञान रूपी प्राणों को नहीं देखता और दूसरे इन्द्रिय और शरीर रून गुणों को अपना मानकर उसी में मग्न हो रहा है।
आत्मा के वंश का शक्ति रूप जो अंश है उसे तो तू प्रकाशित नहीं करता है और पुद्गल (शरीर) के वंश से लिपटकर खुश हो रहा है।
तू शरीर के हारने पर हार और और जीतने पर जीत समझता है अरे भाई चैतन्य ! इसी तरह पुद्गल की प्रीति के साथ कैसे वहा जाता है।