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________________ १४२ प्राचीन हिन्दी जैन कवि इकवात कहूँ शिवनायक जी, तुम लायक ठौर कहाँ भटके । यह कौन विचक्षन रीति गही, बिनु देखहि अक्षन सौं अटके । अजहूं गुण मानो तोशीख कहूं, तुम खोलत अमान पटै घटके । चिन सूरति श्राप विराजत हो, तिन सूरत देखे सुधा गटके ॥ हे मोन के पति चैतन्य ! तुमको एक वात कहती हूंक्या यह स्थान तुम्हारे रहने लायक है अरे! तुम कहाँ भटक रहे हो। . अरे! यह तुमने क्या अनोखी रीति पकड़ी है, विना देखे परखे ही इन्द्रियों से अटक गये हो।। अगर तुम अव भी मेरा गुण मानते हो तो तुम से एक भलाई की वात कहती हूं? अरे! तुम अपने घट के पट क्यों नहीं खोलते। तुम खुद अपने आप प्रकाशमान चैतन्य विराजमान हो उस अपनी सुन्दर रूप सुधा का पान क्यों नहीं करते। चैतन्य राजा किस प्रकार बेहोश होता है। काया सी सु नगरी में चिदानंद राज करे, माया सी जु रानी पै मगन बहु भयो हैं। मोह सो है फौजदार क्रोध सो है कोतवार, - लोभ सो वजीर. जहाँ लुटिवे को रहयो है ॥ उदै को जु काजी माने, मान को श्रदल जाने, काम सेना का नवीस आई वाको कहयो है। ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि रहयो, . सुधि जब भाई तत्रै ज्ञान प्राय गहयो है ॥ शरीर नगर में चैतन्य राजा राज. करता है वह माया नामक रानी पर बहुत ही आशक्त हो रहा है।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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