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भैया भगवतीदास
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पुण्य के द्वारा प्राप्त हुई संसार के वैभव को देखकर श्रभिमान मत कर ! देख यह वैभव कैसा 1
धूमन के धौरहर देख कहा गर्व करै,
ही ॥
ये तो छिन माहि जांहि पौन परसत ही । संध्या के समान रंग देखत ही होय भँग, दीपक पतंग जैसे काल गरसत सुपने में भूप जैसे इन्द्र धनु रूप जैसे, प्रोस बूँद धूप जैसे दुरै दरसत ही । एसोई भरम सव कर्मजाल वर्गणा को, तामें मूढ़ मग्न होय मरे तरसत ही ॥ अरे भाई । इन धुएं के मकानों को देखकर क्या घमंड करता है ये तो हवा के लगते हो एक क्षण में ही नष्ट हो जायेगे । संध्या के रङ्ग के समान देखते ही देखते छिन्न भिन्न हो जायगे और दीपक पर उड़ते हुए पतंग जैसे काल के मुँह में चले जाँयगे । ये सब स्वप्न का राज्य, इन्द्र धनुप और ओस की बूँद की तरह क्षण भर में ही नष्ट हो जाने वाले हैं। यह बड़े २ राज्य महल धन, दौलत, यौवन और विषय भोग सब कर्मों का भ्रम जाल है यह सब अनित्य और क्षणिक है । मूढ़ मनुष्य इसमें मग्न होकर इसी के लिए तरसते २ मर जाते हैं।
शत अष्टोत्तरी
इस काव्य में एक सौ आठ सुन्दर पद्य हैं । प्रत्येक पद्य शिक्षा और नीति से भरा हुआ है। इसमें कविवर ने आत्म ज्ञान की शिक्षा बड़े मनोहर ढंग से दी है। बड़ी सरस और हृदयग्राही रचना है। देखिये सुमति रानी चैतन्य को किस प्रकार समझा रही है ।