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________________ १४०. प्राचीन हिन्दी जैन कवि ~rnmom जो अपने आप पर ही मोहित हैं, आत्म गुणों में मस्त हैं, आत्म सुधा के समुद्र हैं और प्राणियों पर करुणा रखने वाले हैं। जो अथाह बुद्धि वाले हैं, आत्म वैभव के बादशाह हैं, अपने मन के मालिक हैं और बड़े महन्त हैं । जो शुभ ध्यान के रखने वाले हैं, शुभ ज्ञान के करने वाले हैं और आत्म शक्ति के परखने वाले, अनंत शक्ति के धारक हैं, ऐसे सर्व संघ के नायक उत्तम उपमाओं के धारक सबको सुख देने वाले सत्य के श्रद्धानी संत पुरुप होते हैं। कविवर पुण्य पाप की महत्ता का वर्णन किस ढंग से करते हैं। ग्रीषम में धूप परै तामें भूमि भारी अरै, फूलत है आक पुनि अति ही उमहि के। वर्षा ऋतु मेघ भरै तामें वृक्ष कोई फरै, . जरत जवासा अघ श्रापुही ते डहि कै॥ ऋतु को न दोष कोऊ पुण्य पाप फलै दोऊ, जैसे जैसे किए पूर्व तैसे रहै सहि के। केई जीव सुखी होहिं केई जीव दुखी होहिं, देखहु तमासो भैया न्यारे नैकु रहि कै॥ गर्मी में तेज धूप पड़ती है उससे समस्त भूतल जलता है। परन्तु आक वृक्ष बड़ी उमंग के साथ फूलता है। वर्षा ऋतु में मेघ बरसता है जिससे चारों ओर हरियाली हो जाती है अनेकों वृक्ष फलते फूलते हैं परंतु जवासे का पेड़ अपने आप ही जलकर गिर पड़ता है। हे भाई। इसमें ऋतु का कोई दोष नहीं है यह पुण्य पाप का फल है जिसने जैसे कर्म किए हैं उसी तरह उसे सहना पड़ते हैं। कोई जीव पुण्य के कारण सुखी होते हैं और कोई पाप के सवब से दुखी होते हैं। हे भाई, तू पुण्य और पाप दोनों से अलग रह कर संसार का तमाशा देख।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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