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भैया भगवतीदास
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मोह कर्म जिंह हरयो, करयों रागादिक नटित । - द्वेष सवै परिहरयो, जागि क्रोधहिं किय मिटित ॥ मान मूढ़ता हरिय, दरिय माया दुख दायिन । - लोभ लहर गति गरिय, खरिय प्रगटी जु रसायिन ॥ केवल पद अवलंवि हुश्रा, भव समुद्र तारन तरन ।
त्रयकालचरनवंदतभविक,जयजिनंदतुहपयशरन॥
जिन्होंने बलवान मोह को जीत लिया है, राग द्वप का नाश कर दिया है, क्रोध को पछाड़ डाला है, घमंड और मूढ़ता का मान मर्दन कर दिया है, दुख की देने वाली माया को मरोड़ डाला है, लोभ लहर की चाल को रोक दिया है, जिन्हें आत्मज्ञान रूपी रसायन प्राप्त हुई है और जो पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर संसार सागर से पार होकर दूसरों को पार उतारते हैं उन जिनेन्द्र देवकी भगवतीदास वंदना करते हैं। और चरण शरण की याचना करते हैं। . .
कविवर ने सत्य श्रद्धानी समदृष्टि की प्रशंसा कितने मनोहर ढंग से की है उसकी मधुरता का थोड़ा सा श्रानन्द श्राप भी लीजिए । स्वरूप रिझवारे से, सुगुण मतवारे से,
सुधा के सुधारे से, सुप्राणि दयावंत हैं ! सुवुद्धि के अथाह से, सुरिद्ध पातशाह से,
सुमन के सनाह से, महा बड़े महंत हैं । सुध्यान के धरैया से, सुज्ञान के करैया से,
सुप्राण परखैया से, शकती अनंत हैं। सवै संघ नायक से, सवै वोल लायक से,
सवै सुख दायक से, सम्यक के संत हैं।