________________
१२६
प्राचीन हिन्दी जैन कवि
-
~
ommomorrormmmmmwwwanmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmon
ऐसे क्यों प्रभु पाइए, सुन मूरख प्रानी।
जैसे निरख मरीचिका, मृग मानत पानी॥ माटी भूमि पहार की, तुहि संपत्ति सूझै ।
प्रगट पहेली मोह की, तू तऊ न वूझै ॥ ज्यों मृग नाभि सुवाससों, ढूढ़त वन दौरे। .
त्यों तुझ में तेरा धनी, तू खोजत और ॥ हे मूर्ख प्राणी ! इस तरह ईश्वर की प्राप्ति कैसे हो सकती है। जैसे मृग माया मरीचिका को देखकर पानी समझता है। और उसके लिए दौड़ता है उसी तरह पहाड़ की मट्टी तुझे संपत्ति सी मालूम पड़ती है। अरे! इस मोह की पहेली को तू नहीं जानता है। जिस तरह कस्तूरिया मृग अपनी नाभि में कस्तूरी रखता है और उसे ढूढ़ने के लिए जंगल में दौड़ता है उसी तरह तेरा स्वामी तुझमें ही छिपा है परन्तु हे मूर्ख ! तू उसे कहीं और जगह ही खोजता फिरता है । तुझे वह कहाँ मिलेगा।
अध्यात्म पद आत्मा के मूल नक्षत्र में ज्ञान पुत्र का जन्म हुआ है उसकी करामात देखिए। ___मूलन बेटा जायो रे साधो, मूलन० जाने खोज० कुटुम्ब सव खायो साधो० मूलन० . जन्मत माता ममता खाई, मोह लोभ दोइ भाई।
काम क्रोध दोइ काका खाए, खाई तृपना दाई ।। पापी पाप परोसी खायो, अशुभ कर्म दोई मासा ।
मान नगर को राजा खायो, फैल परो सब गामा..