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________________ कविवर वनारसीदास १२५ पद हे भाई ! ईश्वर की प्राप्ति इस तरह हो सकती है। सुन और समझ। ऐसे यों प्रभु पाइए. सुन पंडित प्रानी। ज्यों मथि माखन काढ़िये, दधि मेलि मथानी ॥ ज्यों रस लीन रसायनी, रस रीति अराधै।। त्यों घट में परमारथी, परमारथ साधै ॥ श्राप लखे जब श्राप को, दुविधा पर मेटे। साहिव सेवक एक से, तव को किहिं भेंट हे ज्ञानी पंडित ! ईश्वर की प्राप्ति इस तरह होती है जैसे दही में मथानी डालकर उसको मथकर मक्खन निकाला जाता है। जैसे रस में मग्न हुया रसायनी रस की आराधना करता हुआ रसायन को पाता है। उसी तरह ईश्वर को प्राप्त करनेवाला भव्य जीव अपने घट में अपनी ही साधना करता है। और जिस समय आप में अपने आपका निरीक्षण करता है उसी समय वह खुद ही ईश्वर बन जाता है। मन की दुविधा नष्ट हो जाती है और साहिव और सेवक एक हो जाते है तब कौन किसकी भेंट करें। हे मूर्ख ! ईश्वर की प्राप्ति इस तरह नहीं होती है। अरे! तू कहाँ भटक रहा है।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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