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कविवर बनारसीदास
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शांतिनाथ स्तुति
श्री शांतिनाथ तीर्थंकर कर्मों को नष्टकर शिव सुन्दरी से मिलने मोक्षपुरी को जा रहे हैं उसी समय शिव रानी मोक्ष नगर में बैठी हुई अपनी शांति सखी से बातचीत कर रही है उसका सरस वार्तालाप सुनिए। सहि एरी! दिन अाज सुहाया मुझ भाया श्राया नहिं घरे । सहि एरी! मन उदधि अनंदा, सुख-कन्दा चन्दा देह धरे ।। चन्दा जिवां मेरा बल्लम सोहे, नैन चकोरहि सुक्ख करै। जग ज्योति सुहाई, कीरति छाई, बहु दुख तिमर वितान हरै॥ सहु काल विनानी अमृत वानी, अरु मृग का लांछन कहिए । श्री शांति जिनेश वनारसि को प्रभु, आज मिला मेरी सहिए । सहि एरी! तू परम सयानी, सुर ज्ञानी रानी राज किया। सहि एरी! तू अति सुकुमारी, वर न्यारी प्यारी प्राण प्रिया ॥ प्राण प्रिया लखि रूप अचंभा, रति रंभा मन लाज रही। कल धौत कुरंग कौल करि केसरिये सरि तोहि न होहिं कहीं ।। अनुराग सुहाग भाग गुन अागरि, नागरि पुन्यहिं लहिए । मिलिं या तुझ कन्त नरोत्तम को प्रभु, धन्य सयानी सहिए ।
सखी. आज का दिन बड़ा मनोहर है मेरे हृदय को हरने वाला अव तक घर नहीं आया।
हे सखी, मेरे हृदय समुद्र को आनंद देने वाला वह सुख का भंडार चन्द्रमा के समान शरीर को धारण करने वाला है।
चन्द्रमा के समान मेरा पति मेरे नेत्र चकोरों को सुख देने वाला है। संसार में उसकी सुहावनी ज्योति की बड़ाई छाई हुई है और वह दुख अंधकार के समूह को नष्ट करने वाला है।