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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
शुभ दल पल्लच लहलहे हो, आयो सहज वसंत । · सुमति कोकिला गहगही हो, मन मधु कर सुरति श्रग्नि ज्वाला जगी हो, श्रष्ट कर्म वन अलख अमूरति आत्मा हो, खेले परम ज्योति परगट भई हो, लगी आठ काठ सव जल बुझे हो, गई
धर्म
मयमंत ॥ जांल ।
धमाल ||
होलिका श्राग ।
तताई
भाग ॥
अध्यात्म (आत्म-ज्ञान ) के विना ईश्वर का रूप किस प्रकार प्राप्त हो सकता है। जिसकी महिमा अगम्य और अनूठी है जो अगोचर होने पर भी घट के अन्दर समाया हुआ है ।
माया रात्रि लघु हो गई समतारस रूपी सूर्य की विजय हुई वह बढ़ने लगा |
मोह कीचड़ की स्थिति कम हो गई और संशय रूपी शिशिर काल समाप्त हो गया ।
शुभ भाव दलरूपी पल्लव लहराने लगे और सहज आनन्द रूपी वसंत का आगमन हुआ । सुमति कोकिल बोलने लगी और मनरूपी भौंरा मदोन्मत्त हो उठा ।
आत्ममग्नतारूपी अग्नि ज्वाला प्रज्वलित हुई जिसने कर्म वन को जला डाला । अमूर्ति और अगोचर आत्माधर्म रूपी फाग खेलने लगा ।
आत्मध्यान के वल से परम ज्योति प्रगट हुई, अष्ट कर्म रूपी काष्ट की होली में आग लगी और वह जलकर शान्त हो गई उसकी जलन नष्ट हो गई और आत्मा अपने शुद्ध शान्त रस रङ्ग में मग्न होकर शिवसुन्दरी से फाग खेलने लगा ।