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कविवर बनारसीदास
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तब एक सखी बोली, हे रानी! मैं समझी, सुन इसका अर्थ कहती हूँ।
तेरे हृदय घर में चैतन्य रूपी एक अद्भुत वृक्ष शोभित हो रहा है। प्रकाशमान चेतना ही उसकी ऊँची डालें हैं और गुण ही उसके घने और लम्बे पत्ते हैं। उसको ममतारूपी हवा नहीं छू पाती, प्रेम मग्नता हो चारों ओर फैलने वाली उसकी छाया है।
कर्म के उदय से चंचल होकर वह इधर-उधर डोलता है और कभी वह अपने घर और कभी वाहिर सहज रूप से क्रीड़ा करता है।
कभी वह अपनी आत्म सम्पत्ति की ओर आकर्षित होता है और कभी माया का आलिंगन करता है जिस समय वह अपने मनोविकारों को फैलाता है उस समय कुमति पर उसकी छाया पड़ती है।
तव तेरे हृदय में यह डाह पैदा होती है कि मैं कुलीन हूँ और कुमति दासी है उसके यहाँ छाया क्यों जाती है । हे दोनों पर दया करनेवाली सखी! यही तेरे हृदय की पीड़ा है।
अध्यात्म फाग इसमें २५ छन्दों द्वारा आत्म फाग का वर्णन किया गया है। आत्मा नायक कर्मों की होली जलाता है, और धर्म को फाग खेलता है।
अध्यातम विन क्यों पाइए हो, परम पुरुष को रूप । . अघट अंग घट मिलि रह्यो हो, महिमा अगम अरूप ।।
माया रजनी लघु भई हो, समरस दिन शशि जीत । मोह पंक की थिति घटी हो, संशय शिशिर व्यतीतः॥.