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________________ ११६ प्राचीन हिन्दी जैन कवि www. enakAAAAAAAAAMAAJ मोरे प्रांगन विरवा उलयो, विना पवन भकुलाई। ऊँचि डाल वड़ पात सघनवां, छाँह सौत के जाई ॥॥ वोली सखी बात मैं समुभी, कहूं अर्थ अब जो है। तेरे घर अन्तर घट नायक, अद्भुत घिरवा सोहै ।।।। ऊँचो डाल चेतना उद्धत, वड़े पात. गुण भारी। ममता वात गात नहिं पर से, छकनि छाँह छतनारी ॥६॥ उदय स्वभाव पाय पद चंचल, तात इत उत डोले।। कवहूं घर कबहूं घर बाहिर, सहज सरूप कलोले ॥७॥ कवहूं निज संपति आकर्षे, कबहूं परसै माया। जब तन को त्योनार कर तब, परै सौनि पर छाया | तोरे हिए डाह यों श्रावै, हौं कुलीन वह चेरी। कहै सखी सुन दीन दयाली, यहै हियाली तेरी ॥६॥ ____ कुमति और सुमति दोनों आत्मव्रज की बनिताएँ हैं, दोनों का पति चैतन्य है । कुमति पति के रहस्य को नहीं जानती है और सुमति उसी के प्रेम में मग्न रहती है। आत्म ज्ञान से परिपूर्ण सुमति, अपने और पराये को जानती है। जब कभी कुमति के वश में होकर उसका पति चैतन्य चपलता की चाल चलता है तब उसके हृदय में भारी ठेस लगती है। ____ सुमति अपनी सहेलियों के संग खेल, हँसी और क्रीडा करती है एक दिन मौका पाकर वह एक पहेली कहती है। हे सखियो! मेरे आंगन में एक पेड़ लहलहा रहा है उसकी ऊँची डालिएं तथा लम्बे और घने पत्ते हैं। वह बिना हवा के लहराता है परन्तु उसकी छाया सौत के घर जाती है ! .
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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