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कविवर वनारसीदास
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किया है । इस पद्य में कविवर जैन-शासन की महत्वता का वर्णन करते हैंउद भयो भानु कोऊ पंथी उठ्यो पंथ काज,
कई नेन तेज थोरो दीप फर चाहिए। फोऊ कोटी ध्वज नृप छत्र छाँह पुर तज,
ताहि हौस भई जाय ग्राम वास रहिए॥ मंगल प्रचंड तज काह ऐसी इच्छा भई,
एक खर निज असवारी काज चहिए। वानारसीदास जिन वचन प्रकाश सुन,
और वैन सुन्यो चाहे तासों ऐसी कहिए ॥
जो प्रकाशमान जिन पचनों को सुनकर अन्य के उपदेश सुनने की इच्छा रखता है उसकी इच्छा इसी प्रकार है जैसे प्रभात होने पर मार्ग चलनवाला कोई पथिक यह कहता हो कि सूर्य का प्रकाश घोड़ा है गुमे तो दीपक चाहिए और कोई करोड़पति राजा छत्र की छाया और नगर का निवास स्थान त्यागकर, गाँव में रहने की इच्छा करता हो तथा तेजवान हाथी की सवारी त्यागकर कोई मनुप्य गधे पर बढ़ने की चाह रखता हो।
भवसमुद्र का तारक आत्म-ज्ञान है तू उसी की खोज कर। कीन काज सुगध करत वध दीन पशु,
जागी न अगम ज्योति कैसो जश करि है। फोन काज सरिता समुद्र सर जल डोहै,
श्रातम अमल डोहयो अजहूँ न डरि है। काहे परिणाम संक्लेश रूप करे जीव,
पुण्य पाप भेद किए कहुँ न उधरि है। पानारसीदास निज उकत अमृत रस
सोई शान सुनै तु अनंत भव तरि है।