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________________ प्राचीन हिन्दी जैन कवि कर्म समुद्र विभाव जल, विषय वडवानल तृष्णा प्रचल, ममता भरम भंवर तामें फिरे, मन जहाज गिरे फिर वूढ़े तिरै, उदय पवन जब चेतन मालिम जगै लखे विपाक डारै समता शृङ्खला, थकै भँवर की दिशि परखे गुण जंत्र सों, फेरे शकति धरै साथ शिव दीप मुख, वादत्रान शुभ ध्यान ॥ ११० कषाय धुनि wwwww wwww तरंग | सर्वंग ॥ चहुँ ओर । के जोर ॥ नजूम । घूम ॥ सुखान । कर्म रूपी महासमुद्र है उसमें ( क्रोध, मान, माया, लोभ) विभाव रूपी जल भरा है विपय वासनाओं की तरंगें उठती हैं तृष्णा रूपी प्रबल बड़वा अग्नि है और चारों ओर ममता रूपी गर्जना हो रही है। उसमें भ्रम का भँवर पड़ता है जिसमें मन रूपी जहाज चारों ओर घूमता है, कर्म के उदय रूपी पवन के जोर से वह कभी गिरता है कभी डगमगाता है कभी डूबता है और कभी तैरता है । जिस समय चैतन्य आत्मा जागृत होता है उस समय वह कर्मों के रस रूपी नजूम को देखता है । और समता रूपी सांकल डालता है जिससे भँवर का चक्कर रुक जाता है । आत्म गुण रूपी यंत्र से दिशाओं का ज्ञान करता है और शक्ति के पतवार को चलाता । शुभ ध्यान रूपी मल्लाह के द्वारा शिव द्वीप की ओर मुंह करके चलता है और मुक्ति को प्राप्त करता है । ज्ञानवावनी इसमें ५२ पद्य हैं प्रत्येक पद्य भाषा प्रौढ़ता और उपमात्र से विभूषित है। इसमें ज्ञान को महिमा का मनोहर वर्णन
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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