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________________ कविवर वनारसीदास MARAvvvwww.. AAAAAAssnesssanawaneAnMAHARARRhnahAnAnan nam जीव और शिव कोई अलग-अलग पदार्थ नहीं है जो जीव है वही शिव है । जिस समय जीव शिव की पूजा करता है उस समय वह अपनी ही पूजा करता है। शरीर मंडप में विचार की वेदी पर श्रात्म रस में आत्मा मग्न है वह अपने आपका समता रस से अभिपेक करता है और उपशम रस का चन्दन लगाता है । सुमति पार्वती उसके अर्धाङ्ग में रहती है, करुणा रस मई वाणी ही गंगा है, अनन्त शक्ति रूपी विभूति उसकी शोभा बढ़ाती है और तीन गुप्ति, ही उसका त्रिशूल है। _ ब्रह्म समाधि से उसका ध्यान रूपी ग्रह सज रहा है और वहाँ पर अनाहत डमरू बजता है। __ संयम ही जिसकी जटाएँ है वह स्वाभाविक सुख का भोग करने वाला निश्चय रूप से दिगम्बर योगी है। जिस समय वह अकेला ही अष्ट कर्मों से भिड़ता है उस समय महारुद्र कहलाता है। मोह का हरण करता है, इसलिए हर कहलाता है वह हो शिव स्वरूप है। ऐसे चैतन्य आत्मा शिव की ही सदा साधना करना चाहिए। भवसिन्धु चतुर्दशी इसमें संसार को समुद्र की उपमा देकर उसका मनोहर ढंग से वर्णन किया है और फिर उससे पार होने का सरल और अनुभूत उपाय बतलाया है। उपमाएँ बहुत ही सरस और सरल है।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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