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________________ प्राचीन हिन्दी जैन कवि अज्ञानी मनुष्य मतवाले की तरह शुभ कर्म के उदय से क्षण में हँसता है और अशुभ कर्म के उदय से क्षण में रोने लगता है वह पुण्य पाप की शराब में हमेशा बेहोश रहकर आनन्द माता है ॥ ११ ॥ १०८ वह एक में विनोद और एक में खेदित होता है परन्तु समदृष्टी सज्जन दोनों से मुक्त रहते हैं ॥ १२ ॥ गुरु का उपदेश सुनने से आत्म ज्ञान जागृत हुआ । ज्ञान के प्रगट होने पर, सुबुद्धि रूपी तेज किरणों के प्रभाव से, भ्रम अंधकार के पटल के सैकड़ों टुकड़े हो गए ॥ १३ ॥ सतगुरु का यह उपदेश सुनकर आश्रव को रोक करके कर्म के किवाड़ों को खोलकर मोक्ष की सीड़ी प्राप्त की ॥ १४ ॥ शिव पच्चीसी इसमें आत्मा को शिव रूप मानकर उसकी शिव के गुणों से तुलना की है । वर्णन बड़ा ही सुन्दर है । जीव और शिव और न कोई, सोई जीव वस्तु शिव सोई । करै जीव जब शिव की पूजा, नाम भेद सों होय न दूजा ॥ तन मंडप मनसा जहँ वेदी, श्रतम मग्न श्रात्म रस भेदी । समरस जल अभिषेक करावै, उपशम रस चन्दन घसि लावै ॥ सुमति गौरि अर्द्धग वखानी, सुर सरिता करुणा रस वाणी । शक्ति विभूति श्रंग छवि छाजै, तीन गुपति तिरशूल विराजै ॥ ब्रह्म समाधि ध्यान ग्रह साजै, तहाँ अनाहत डमरू वाजै संजम जटा सहज सुख भोगी, निहचै रूपं दिगम्बर जोगी ॥ अष्ट कर्म सों भिड़े अकेला, महा रुद्र कहिए तिहि बेला । मोह हरण हर नाम कहीजे, शिव स्वरूप शिव साधन कीजे ॥ ।
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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