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________________ कविवर बनारसीदास १०७ जिसका हृदय भ्रम के कीचड़ से मलिन है और संशय के तिमिर रोग से जिसे झलमला दिखता है जिसके हृदय रूपी भूमि में कुज्ञान का कुदाल चलता रहता है। उसका मन सदा ही इधर उधर डोलता रहता है ।। २-३॥ जो शृद्धा पूर्वक गुरु के बचनों को नहीं सुनते हैं उनके आगे यह कथन उसी प्रकार है जिस तरह कोदों का दलना ॥४॥ जिस तरह ऊसर जमीन में बरसा जल और पत्थर पर बोया बीज व्यर्थ ही होता है उसी तरह अशृद्धानी को उपदेश देना व्यर्थ है ॥५॥ तूने बनवासी बनकर मकान और कुटुम्ब छोड़ दिया परन्तु यदि तुझे अपने और पराये का ज्ञान नहीं हुआ तो यह सब त्याग झूठा है ॥६॥ जिस तरह खून से रंगा हुआ लाल कपड़ा खून से धोने पर साफ नहीं होता है उसी तरह ममत्वभाव से संसार नहीं छूटता ॥७॥ अरे! तुझे मोह की सांकल में किसने जकड़ा है । भाई तेरा पल्ला किसने पकड़ा है। किसी ने भी नहीं। जिस तरह मकड़ी अपने मुँह से तार निकालकर खुद ही फँसती है उसी तरह तू खुद ही संसार की वस्तुओं से मोह करके उनमें फँसा है॥८॥ जो जीर्ण होकर गिर पड़ता है जो फिर नया जन्म धारण करता है जो मुरझाता है जो सूखता और जो फूलता फलता है। जो पानी में वहता है और आग में जलता है वह सब तरह तरह के रूप रखने वाला पुद्गल है आत्मा तो न जन्म लेता है न मरता है ।। ९-१० ॥
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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