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कविवर बनारसीदास
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जिसका हृदय भ्रम के कीचड़ से मलिन है और संशय के तिमिर रोग से जिसे झलमला दिखता है जिसके हृदय रूपी भूमि में कुज्ञान का कुदाल चलता रहता है। उसका मन सदा ही इधर उधर डोलता रहता है ।। २-३॥
जो शृद्धा पूर्वक गुरु के बचनों को नहीं सुनते हैं उनके आगे यह कथन उसी प्रकार है जिस तरह कोदों का दलना ॥४॥
जिस तरह ऊसर जमीन में बरसा जल और पत्थर पर बोया बीज व्यर्थ ही होता है उसी तरह अशृद्धानी को उपदेश देना व्यर्थ है ॥५॥
तूने बनवासी बनकर मकान और कुटुम्ब छोड़ दिया परन्तु यदि तुझे अपने और पराये का ज्ञान नहीं हुआ तो यह सब त्याग झूठा है ॥६॥
जिस तरह खून से रंगा हुआ लाल कपड़ा खून से धोने पर साफ नहीं होता है उसी तरह ममत्वभाव से संसार नहीं छूटता ॥७॥
अरे! तुझे मोह की सांकल में किसने जकड़ा है । भाई तेरा पल्ला किसने पकड़ा है। किसी ने भी नहीं। जिस तरह मकड़ी अपने मुँह से तार निकालकर खुद ही फँसती है उसी तरह तू खुद ही संसार की वस्तुओं से मोह करके उनमें फँसा है॥८॥
जो जीर्ण होकर गिर पड़ता है जो फिर नया जन्म धारण करता है जो मुरझाता है जो सूखता और जो फूलता फलता है। जो पानी में वहता है और आग में जलता है वह सब तरह तरह के रूप रखने वाला पुद्गल है आत्मा तो न जन्म लेता है न मरता है ।। ९-१० ॥