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प्राचीन हिन्दी जैन कंवि
खनै जिन्हादी भूमिन, कुज्ञान कुदरला ।
सहज तिन्हादा वहज सों, चित रहै दुदल्ला ॥ ३ ॥ जिन्हां चित्त इतवार सों, गुरु वचन न झल्ला ।
जिन्हां आगे कथन यों, ज्यों कोदों दल्ला ॥ ४ ॥ वरसे पाहन भुम्मि में, नहिं होय चहल्ला।
वोये वीज न उप्पजै, जल जाय वहल्ला ॥ ५ ॥ है वनवासी ते तजा, घर वार मुहल्ला ।
अप्पा पर न पिछाणियां, सब झूठी गल्ला ॥ ६ ॥ ज्यों रुधिरादी पुट्ट सां, पट दीसे लल्ला।
रुधिरानलहि पखलिए, नहीं होय उजल्ला ॥ ७ ॥ किण तू जकरा सांकला, किण पकड़ा पल्ला।
भिद मकरा ज्यों उरमिया, उर आप उगल्ला ॥ ८ ॥ जो जीरण है भर पड़े, जो होय नवल्ला ।
जो मुरझावै सुक्कब, फुल्ला अरु फल्ला ॥६॥ जो पानी में बह चले, पावक में जल्ला ।
सो सव नाना रूप है निहचै पुद्गल्ला ॥१०॥ खिण रोवे खिण में हँसै, जौं मद मतवल्ला। ___त्यों दुहुँवादी मौज सों, वेहोश सँभल्ला ॥११॥ ईकस वीच विनोद है इक में खल भल्ला ।
लमष्ठी सजन करै, दुहुँ सो हल भल्ला ॥१२॥ ज्ञान दिवाकर उग्गियो, मति किरण प्रवल्ला।
द्वै शत खंड विहंडिया, भ्रम तिमर पटल्ला ॥१३॥ यह सत्गुरु दी देशना, कर श्राश्रव दी वाड़ि । लद्धी पैडि मोखदी, करम कपाट उघाडि ॥१४॥
हे चतुर चेतन ! यह सुहावने जिन वचन सुन । इनको समझने से सुबुद्धि जगती है और मलिनता नष्ट हो जाती है ।। १॥