SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ प्राचीन हिन्दी जैन कंवि खनै जिन्हादी भूमिन, कुज्ञान कुदरला । सहज तिन्हादा वहज सों, चित रहै दुदल्ला ॥ ३ ॥ जिन्हां चित्त इतवार सों, गुरु वचन न झल्ला । जिन्हां आगे कथन यों, ज्यों कोदों दल्ला ॥ ४ ॥ वरसे पाहन भुम्मि में, नहिं होय चहल्ला। वोये वीज न उप्पजै, जल जाय वहल्ला ॥ ५ ॥ है वनवासी ते तजा, घर वार मुहल्ला । अप्पा पर न पिछाणियां, सब झूठी गल्ला ॥ ६ ॥ ज्यों रुधिरादी पुट्ट सां, पट दीसे लल्ला। रुधिरानलहि पखलिए, नहीं होय उजल्ला ॥ ७ ॥ किण तू जकरा सांकला, किण पकड़ा पल्ला। भिद मकरा ज्यों उरमिया, उर आप उगल्ला ॥ ८ ॥ जो जीरण है भर पड़े, जो होय नवल्ला । जो मुरझावै सुक्कब, फुल्ला अरु फल्ला ॥६॥ जो पानी में बह चले, पावक में जल्ला । सो सव नाना रूप है निहचै पुद्गल्ला ॥१०॥ खिण रोवे खिण में हँसै, जौं मद मतवल्ला। ___त्यों दुहुँवादी मौज सों, वेहोश सँभल्ला ॥११॥ ईकस वीच विनोद है इक में खल भल्ला । लमष्ठी सजन करै, दुहुँ सो हल भल्ला ॥१२॥ ज्ञान दिवाकर उग्गियो, मति किरण प्रवल्ला। द्वै शत खंड विहंडिया, भ्रम तिमर पटल्ला ॥१३॥ यह सत्गुरु दी देशना, कर श्राश्रव दी वाड़ि । लद्धी पैडि मोखदी, करम कपाट उघाडि ॥१४॥ हे चतुर चेतन ! यह सुहावने जिन वचन सुन । इनको समझने से सुबुद्धि जगती है और मलिनता नष्ट हो जाती है ।। १॥
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy