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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
हे मूर्ख! तू किसलिए दीन पशुओं का वध करता है यदि हृदय में ज्ञान की ज्योति जागृत नहीं हुई तो तू क्या यज्ञ करेगा!
समुद्र और सरिताओं को जल किसलिए ढोलता है यदि तूने निर्मल पात्मजल में क्रीड़ा नहीं की तो व्यर्थ जल डोलने से क्या शान्ति प्राप्त करेगा!
हे भाई! पुण्य और पाप के उदय होने पर तू अपने परिणामों को क्यों संलश रूप करता है इन दोनों का त्याग किए विना तेरा कभी उद्धार नहीं हो सकता है।
वनारसीदास कहते हैं तू आत्म ज्ञान अमृत रस का पान कर उसीसे अनन्त संसार से तर सकेगा। मोक्ष चलिवे को पंथ भृले पंथ पथिक ज्यों,
पंथ वल हीन ताहि सुख रथ सारिसी। सहज समाधि जोग साधिवे को रंग भूमि,
परम अगमपद पढ़िवे को पारसी ॥ भव सिंधु तारित्रे को शवद धरै है पोत,
ज्ञान घाट पाये श्रुत लंगर ले भारसी। समकित नैननि को थाके नैन अंजन से,
प्रातमा निहारिवे को आरसी बनारसी ॥
जो पथिक मोक्ष का मार्ग भूले हुए हैं और जिनमें मार्ग पर चलने की सामर्थ्य नहीं है उनके लिए सुखकर रथ के समान है।
आत्म समाधि का साधन करने के लिए रंगभूमि है और महा अगम्य अध्यात्म पाठ पढ़ने के लिए जो पारसी विधा के . समान है।