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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
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संवेग संवर निकट सेवक, विरत वीरे देत ।
आनंद कंद सुछंद साहिब, सुख समाधि समेत ॥ धारना समता क्षमा करुणा, चार सखि चहुँ ओर ।
निर्जरा दोऊ चतुर दासी, करहिं खिदमत जोर ॥ जहँ विनय मिलि सातों सुहागिन, करत धुनि झनकार।
गुरु वचन राग सिद्धान्त धुरपद, ताल अरथ विचार ॥ शृदहन सांची मेघ माला, दाम गर्जत छोर।
उपदेश वा अति मनोहर, भविक चातक शोर ॥ अनुभूति दामनि दमक दीसै, शील शीत समीर।
तप भेद तपत उछेद परगट भाव रंगत चीर ॥ इह भांति सहज हिंडोल मूलत, करत ज्ञान विलास ।
कर जोर भगति विशेप, विधि सों नम बनारसिदास ॥ __हर्प के हिंडोले पर चेतन राजा सहज रूप से झूलते हैं जहाँ धर्म और कर्म के संयोग से स्वभाव और विभाव रूप रस पैदा होता है
मन के अनुपम महल में सुरुचि रूपी सुन्दर भूमि है उसमें ज्ञान और दर्शन के अचल खंभे और चरित्र की मजबूत रस्सी लगी है।
. वहाँ गुण और पर्याय की सुगन्धित वायु रहती है और निर्मल विवेक भौंरा गुंजार करता है। व्यवहार और निश्चय नय की दंडी लगी है, सुमति की पटली विछी है। और उसमें छह द्रव्य की छह कीलें लगी हैं। कर्मों का उदय और पुरुपार्थ दोनों मिलकर झोंटा देते हैं जिसमें शुभ और अशुभ की किलोलें उठती हैं । संवेग और संवर दोनों सेवक सेवा करते हैं और व्रत वीड़े देते हैं । जिस पर आनन्द स्वरूप चेतन अपने आत्म सुख की समाधि में निश्चल विराजमान हैं। .