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कविवर बनारसीदास
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जाके जित जैसी दशा, ताकी तैसी दृष्टि. पंडित भव खंडित करै, मूढ़ बढ़ावें सृष्टि ।
चाहे कोई पहाड़ पर चढ़कर मरे और चाहे कोई कुए में डूबकर मरे दोनों की मृत्यु एक सी है केवल कहने के लिए उसके भेद हैं ।
शुभ-अशुभ दोनों की माता वेदनी है और मोह दोनों का पिता है। दोनों ही बेड़ियों से बँधे हुए हैं एक सोने की बेड़ी कहलाती है और दूसरी लोहे की ।
जिसकी जहाँ जैसी हालत है उसकी वहाँ वैसी ही दृष्टि है । पंडित शुभ-अशुभ दोनों का त्यागकर संसार को नष्ट करता है और मूर्ख दोनों में मग्न होकर संसार को बढ़ाता है ।
अध्यात्म हिंडोलना
चैतन्य आत्मा स्वाभाविक सुख के हिंडोले पर आत्म गुणों के साथ क्रीड़ा करता है इसका हृदयग्राही और सरस वर्णन कवि ने बड़े याकर्षक ढंग से किया है ।
सहज हिंडना हरख हिलोडना, भूलत चेतन राव |
जहँ धर्म कर्म संजोग उपजत, रस स्वभाव विभाव ॥ . जहँ सुमन रूप अनूप मन्दिर, सुरुचि भूमि सुरंग ।
तहँ ज्ञान दर्शन खंभ अविचल, चरन श्राड अभंग ॥ मरुवा सुगुन परजाय विचरन, भौंर विमल विवेक ।
व्यवहार निश्चय नय सुदंडी, सुमति पटली एक ॥ उद्यम उदय मिलि देहिं भोटा, शुभ अशुभ कल्लोल ।
पट कील जहाँ पट् द्रव्य निर्णय, अभय श्रंग डोल ॥