________________
प्राचीन हिन्दी जैन कवि
यहै अष्टभुजी अष्ट कर्म की शकति भंजै,
यह काल भंजनी उलंधै काल करणी॥ यह काम नाशिनी कमिक्षा कलि में कहावे,
यह भव भेदनी भवानी शंभु घरनी। यहै राम रमणी सहज रूप सीता सती,
यहै देवी सुमति अनेक भांति वरनी॥ ध्यान अग्नि के प्रगट होने पर यही ज्वाला मुखी है और मोह महिपासुर को जीतने वाली यही चंडी है।।
अष्ट कर्मों की शक्ति को नष्ट करने वाली अष्ट भुजी यही , है और काल को जीतने वाली यही काल भंजनी है।
काम को जीतने वाली है इसलिए यह कलिकाल में कमक्षा कहलाती है और भव को भेदने वाली यही भवानी है।
आत्मराम में स्वाभाविक रूप से रमनेवाली यही सीता है। इस तरह इस सुमति देवी का अनेक तरह से वर्णन किया गया है।
कर्म छत्तीसी इसमें कर्म की प्रकृतियों का वर्णन ३६ छंदों में किया गया है और अंत में वतलाया है कि शुभ-अशुभ कर्म दोनों ही वंधन हैं । उपमाएं बहुत सरस हैं। कोऊ गिरें पहाड़ चढ़, कोऊ बूढ़े कूप,
मरण दुहू को एक सो कहिबे के कै रूप। माता दुहुँ की वेदनी, पिता दुहूँ को मोह,
दुहुँवेडी सो वंधि रहे, कहवत कंचन लोह ॥