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कविवर बनारसीदास
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प्रकट एक से दोखिए, यह अनादि को खेल ॥ वह वाके रस में रमें, वह वासों लपटाय,
चुम्बक कर लोह को, लोह लगै तिह धाय । कर्मचक्र की नींद सों, मृपा स्वम की दौर,
ज्ञान चक्र की ढरनि में, सजग भांति सव ठौर ॥
जिस तरह फल फूल में सुगन्धि है, दही दूध में घी है और काठ तथा पापाण में अग्नि समाई हुई है उसी तरह शरीर में जीव बसा हुआ है।
चेतन और पुद्गल (शरीर ) इस तरह से मिले हुए हैं जैसे तिल में खली और तेल है । परन्तु वह अनादि काल से एक से दिखते हैं ।
चेतन पुद्गल के रस में रमता है और पुद्गल चेतन से लिपटती है जिस तरह चुम्बक पत्थर लोहे को खींचता है और लोहा दौड़कर उससे चिपटता है।
कर्म चक्र की नींद में पड़कर झूठे स्वप्नों की ओर दौड़ता है परन्तु जिस समय ज्ञान चक्र फिरता है उस समय सब जगह सचेतनता छा जाती है ।
नव दुर्गा विधान
इसमें ९ छन्दों में सुमति की नव दुर्गाओं में कल्पनाओं कल्पना की है । कल्पना बड़ी ही मनोहर है । इसका एक छंद देखिए ।
यह ध्यान अनि प्रगट भये ज्वालामुखी,
यह चंडी मोह महिषासुर निदरणी ।