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________________ ९४ प्राचीन हिन्दी जैन कवि potenti पिय शंकर मैं देवि भवानि, पिय जिनवर मैं केवल वानि । पिय भोगी मैं भुक्ति विशेष, पिथ जोगी मैं मुद्रा मेप || जहाँ पिय साधक तहाँ मैं सिद्ध, जहँ पिय ठाकुर तहाँ मैं रिद्ध । जहाँ पिय राजा तहाँ मैं नीति, जहाँ पिय जोद्धा तहाँ मैं जीति ॥ पिय गुण ग्राहक मैं गुण पांति, पिय बहु नायक मैं बहु भांति । जहँ पिय तह मैं पिय के संग, ज्यों शशि हरि मैं ज्योति अभंग ॥ कहइ व्यवहार बनारसि नाव, चेतन सुमति सही इक ठांव 1. अर्थः-- जो कहीं मेरे मन का प्यारा मिल जावे, मेरा स्वाभाविक प्रेमी मुझे प्राप्त हो जावे । वध रूपी अयोध्या नगरी में श्रात्म राम रहते हैं उनको सुमति सीता प्रणाम करती है। हृदय में पति के मिलने की लालसा उत्पन्न होने पर सुमति अपनी समता सखो से इस प्रकार कहने लगी । मैं विरहिन पिया के वश में हूँ। उनके बिना मैं इस तरह तड़फ रही हूँ जैसे जल के बिना मछली तड़पती है । हे सखी! अगर मैं बाहिर देखती हूं तो मेरा पति बहुत दूर दिखता है और यदि घट के अन्दर देखती हूँ तो वह उसी में समाया हुआ है । उसका दर्शन पाते ही मैं इस तरह उन्हीं में भग्न हो जाऊंगी, जैसे समुद्र में बून्द समा जाती है । मैं अपने आपे को खोकर पिया से इस तरह मिलूंगी जैसे ओला गलकर पानी हो जाता है । मेरा पति मेरे हृदय में है और मैं पति के हृदय में
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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