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कविवर वनारसीदास
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मत्तगयंद • इस छन्द में कविवर लक्ष्मी लीला को किस सुन्दर ढंग से बतलाते हैं।
नीच की ओर ढरै सरिता जिम,
घूम बढ़ावत नींद की नाई । चंचला व प्रगटे चपला जिम,
अंध करै जिम धूम की झांई । तेज कर तिसना दव ज्यों मद,
ज्यों मद पोपित मूढ़ के ताई । ये करतूति करै कमला जग,
डोलत ज्यों कुटला विन सांई । अर्थ-नदी की तरह नीच की तरफ ढलती है, नींद की तरह बेहोशी बढ़ाती है, विजली की तरह चंचल है, धुएं की तरह अंधा बना देती है। तृष्णा अग्नि को उसी तरह बढ़ाती है, जैसे-शराव मस्ती को बढ़ाती है, लक्ष्मी संसार में ये सव कार्य करती है, और वेश्या की तरह डोलती फिरती है। घनाक्षरी
लक्ष्मी ऐसा क्यों करती है उसकी सुन्दर उक्तिएं देखिए । नीच ही की ओर को उमंग चले कमला सो
पिता सिंधु सलिल स्वभाव याहि दियो है। रहे न सुथिर है सकंटक चरन याको . .
वसी कंज माहि कंज कैसो पद कियो है...