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प्राचीन हिन्दी जैन कवि
उसी तरह इस दुर्लभ देह को पाकर आत्म उद्धार के बिना मूर्ख मनुष्य व्यर्थ ही खोता है।
हिंसा करने से कभी भी पुण्य नहीं मिलता। इसका एक छंद सुनिए।
जो पश्चिन रवि उगै, तिरै पापान जल, जो उलटै भुवि लोक, होय शीतल श्रनल जो सुमेह डिग मिगे, सिद्ध के होय मल तवहूँ हिंसा करत, न उपजे पुण्य फल
अर्थ–सूर्य पश्चिम में ऊगने लगे, जल में पत्थर तैरने लगे, अग्नि शीतल हो जाए, सुमेरु पर्वत हिलने लगे, और सिद्धों के कर्म मल हो जाय, तो भी हिंसा करने से पुण्य फल प्राप्त नहीं हो सकता।
शील की महिमा कैसी है, इसका मनोरम वर्णन पदिए। कुल कलंक दलमलहि, पाप मल पङ्क पखारहि दारुण संकट हरहि, जगत महिमा विस्तारहि सुरगमुकति पदरचहि.सुकृतसंचहि करुणारसि सुरगन वंदहि चरन, शील गुण कहत बनारसि
अर्थ-कुल कलंक को काट डालता है, पाप मैल को साफ करता है, घोर संकटों को दूर करता है, संसार में यश फैलाता है, स्वर्ग मुक्ति पद को देता है, पुण्य और करुणा रस को बढ़ाता है तथा देवताओं द्वारा पूजा जाता है। बनारसीदासजी कहते हैं इस शील की ऐसी महिमा है।.