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कविवर बनारसीदास
समान ।
उपजी तुम हिय उदधि तैं, वाणी सुधा जिहिं पीवत भविजन लहहिं, अजर अमर पद थान ||
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सिंहासन गिरि मेरु सम, प्रभुधुनि गरजत श्याम सुतन घन रूप लख, नाचत भविजन
सूक्तिमुक्तावली
श्रीमान् सोमप्रभाचार्य ने सूक्ति मुक्तावली नामक सुंदर काव्य की
रचना की है कविवर ने उसका अनुवाद कितना सरस थोर सरल किया है इसके कुछ छंद यहाँ उद्धृत किए जाते हैं ।
कवित्त
ज्यों मति हीन विवेक विना नर,
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घोर । मोर ॥
मूर्ख मनुष्य श्रपने जन्म को किस तरह खोता है इसकी उपमाएं देखिए |
साजि मतङ्गज ईंधन ढोवै ।
शठ,
पग धोवै ।
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कंचन भाजन धूल भरे
मूढ़ सुधारस सों वाहित काग उड़ावन डार महा मणि
कारण, मुरख रोवै ।
त्यों यह दुर्लभ देह वनारस, पाय अजान अकारथ खोबै
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अर्थ — जैसे कोई विवेकहीन मूर्ख मनुष्य हाथी को सजा
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कर उस पर ईंधन ढोता है, सोने के बर्तन में धूल भरता है, अमृत से पैर धोता है, कौए के उड़ाने को रत्न फेंक कर रोता है,