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३६ | जैन कथामाला (राम-कथा)
भयंकर भीमवन' के अतिविकट भाग में रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण तीनों भाई मन्त्र - जाप हेतु आसन लगाकर जम गये । हाथ में अक्षमाला, नासाग्र दृष्टि और श्वेत वस्त्र धारण किये भाइयों ने दो पहर में मनवांछित फल देने वाली अष्टाक्षरी विद्या हुए तीनों सिद्ध कर ली और तत्पश्चात् दश हजार जप के वाद फल देने वाले षोडशाक्षरी मन्त्र का जप करना प्रारम्भ किया ।
उसी समय जम्बूद्वीप का अधपति अनाधृत नाम का यक्ष (देव) अपने परिवार सहित वहाँ क्रीड़ा करने आया। तीनों तपस्वियों को विद्या सिद्ध करते देख वह चौंका । उन्हें चलित करने के लिए उसने उपद्रव प्रारम्भ किये । अनुकूल और प्रतिकूल सभी उपद्रवों को तीनों भाई सहते रहे, तनिक भी विचलित हुए किन्तु जब देव ने मायारचित, रावण का सिर विभीषण तथा कुम्भकर्ण के आगे और कुम्भकर्ण तथा विभीषण का सिर रावण के आगे रखा तो रावण तो अविचलित रहा किन्तु विभीषण और कुम्भकर्ण विचलित हो गये ।
जप पूर्ण होते ही आकाश से साधु-साधु की ध्वनि हुई और रावण को प्रज्ञप्ति, रोहिणी आदि एक हजार विद्याएँ सिद्ध हो गई । संवृद्धि, जांभृणी, सर्वहारिणी, व्योमगामिनी और इन्द्राणी – ये पाँच कुम्भकर्ण
१ तीनों भाइयों ( दशग्रीवं कुम्भकर्ण और विभीषण) ने गोकर्ण नामक स्थान पर तपस्या की और ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त किये ।
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रावण ने गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं से अवध्य [ वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड ] होने का वरदान प्राप्त किया । साथ ही इच्छानुसार रूप धारण करने की योग्यता भी । ही ब्रह्माजी की आज्ञा से सरस्वती [ वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड ] उसकी जिह्वा पर आ बैठी । अतः उसने वर माँगा - 'मैं अनेकानेक वर्ष तक सोता ही रहूँ ।' ब्रह्मा ने एवमस्तु
३ कुम्भकर्ण के वर माँगने से पहले
कहा और चले गये ।
[ वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड ]