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४५४ | जैन कथामाला (राम-कथा)
राम-लक्ष्मण के सम्मुख आकर राजा वनजंघ ने नमस्कार किया तो राम ने उसका आदर करते हुए कहा -
-राजन् ! तुम हमारे लिए भामण्डल के समान ही प्रिय हो । तुम्हीं ने इन कुमारों का लालन-पालन करके इस योग्य बनाया है।
विशेष-राम-एक अश्वमेघ यन करते हैं। वाल्मीकि ऋपि की प्रेरणा से दोनों बालक (लव और कुग) यन-मण्डप में आकर राम का चरित्र सुनाते हैं । तव सीताजी को बुलाया जाता है और राम उन्हें अपनी शुद्धि प्रमाणित करने की आज्ञा देते हैं। मीता कहती है 'यदि मन, वचन, काय से मैंने राम को ही पति परमेश्वर माना है तो पृथ्वी मुझे अपना गोद में स्थान दे।' उसी समय नागों द्वारा उठाया हुआ एक दिव्य सिंहासन पृथ्वी में से निकला । उस पर स्वयं पृथ्वी देवी बैठी हुई थी। दवा ने सीता को उठा लिया और सिंहासन सीताजी सहित ज्यों की त्या पृथ्वी में वापिस समा गया। वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड]
तुलसीकृत रामचरितमानस में
(१) राम अश्वमेघ यज्ञ की तैयारी करते हैं। उसमें सम्मिलित होने के लिए राम के निमन्त्रण पर सुग्रीव, विभीषण, जनक आदि सना राजा आये । यज प्रारम्भ करने से पहले गुरु वसिष्ठ ने कहा
विनु तिय नहिं फल होय खरारी । अव चहिए मिथिलेशकुमारी ॥
यह सुनकर सभी मौन हो गए तव गुरु वसिष्ठ ने नारद, सनक आदि मुनियों की सलाह से
कनक जटित मणि सुन्दरवाला । रचि सिय रूप सुशील विशाला ।। राम की वगल में बिठा दीं और यज प्रारम्भ कर दिया।
[लवकुश काण्ड, दोहा २०-२६] (२) जैसे ही राज का घोड़ा वाल्मीकि ऋपि के आश्रम के समीप पहुंचा, लव-कुश दोनों भाइयों ने उसे एक वृक्ष से बांध दिया और घोड़े के रक्षक साठ हजार सुभटों में से अधिकांश को मार गिराया । [दोहा ४४]