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पिता-पुत्र का मिलन | ४५३ नारदजी ने मधुर स्वर में समझाया
-नहीं राम ! मैं व्यंग नहीं कर रहा हूँ। ये दोनों सीताजी की कुक्षि से उत्पन्न तुम्हारे ही पुत्र हैं । जिस प्रकार भरत के चक्र ने बाहुवलि पर काम नहीं किया उसी प्रकार लक्ष्मण का चक्र भी व्यर्थ हो गया। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि वे तुम्हारे ही पुत्र हैं।
इसके वाद नारद ने सीता त्याग से लेकर अब तक का पूरा वृत्तान्त सुना दिया।
राम को विस्मय', लज्जा', खेद और हर्ष' एक साथ ही हुए। वे व्याकुल होकर मूच्छित हो गये। थोड़ी देर बाद सचेत हुए तो प्रेमविह्वल होकर पुत्रों से मिलने के लिए आगे बढ़े। लवण-अंकुश ने पिता और काका को प्रेम-विह्वल देखा तो स्वयं दौड़कर उनके चरणों में आ गिरे।
राम ने उन्हें उठाकर कण्ठ से लगा लिया। अग्रज के अंक से दोनों कुमारों को लेकर लक्ष्मण उनसे लिपट गये । हर्ष के आँसू बहने लगे। युद्धभूमि मिलन-भूमि में परिणत हो गई। सेना के वीर भी परस्पर एक-दूसरे के कण्ठ से लग गये। मिलन का अभूतपूर्व दृश्य था। कौन किसके मिल रहा है, सुधि नहीं । शत्रु कोई नहीं सभी एकदूसरे के मित्र थे। ___ सती सीता ने यह मिलन-दृश्य हर्षाश्रुपूरित नयनों से देखा। पिता-पुत्र के परस्पर प्रेम को देखकर वह सन्तुष्ट हुई। हर्ष के आँसू वहाती हुई विमान में बैठी और पुण्डरीकपुर चली गई।
१ पुत्रों के पराक्रम को देखकर विस्मय उत्पन्न हुआ । २ अपनी हार से लज्जा उत्पन्न हुई। ३ सीता-त्याग से उत्पन्न हुआ वियोगजन्य खेद । ४ पुत्र दर्शन और मिलन से हर्ष हुआ।