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४५२ | जैन कथामाला (राम-कथा)
उसी प्रकार अंकुश के समक्ष लक्ष्मण के। वे भी चिन्तातुर होकर सोचने लगे। उसी समय लक्ष्मण के वक्षस्थल पर एक बाण आ लगा। वज्र समान आघात से लक्ष्मण अचेत होकर रथ में गिर गये । तुरन्त विराध ने रथ मोड़ा और अयोध्या की ओर दौड़ाने लगा। मार्ग की वायु से लक्ष्मण सचेत हुए तो विराध को फटकारने लगे
-अरे विराध ! यह तुमने क्या अकार्य किया ? रणभूमि को छोड़कर भागना क्षत्रिय के लिए मृत्यु से भी बुरा है। तुरन्त रथ को मोड़ो।
बेचारा विराध क्या करता ? लक्ष्मणजी की रौद्र मुख-मुद्रा देखकर उसने पुनः रथ लौटाया और अंकुश के सामने ला खड़ा किया। लाल-लाल नेत्र करके उन्होंने अपना अन्तिम अमोघ अस्त्र दिव्य चक्ररत्न अंकुश पर छोड़ा । अंकुश ने अनेक अस्त्रों से चक्र को निष्फल करने का प्रयास किया किन्तु जैसे सूर्य के प्रताप से सभी ग्रह-नक्षत्र छिप जाते हैं वैसे ही अंकुश के सभी अस्त्र व्यर्थ हो गये। दिव्य चक्र ने अंकुश की प्रदक्षिणा की और लौटकर लक्ष्मण के हाथ में आ गया। चक्र की इस क्रिया से लक्ष्मण का क्रोध और भी बढ़ गया। उन्होंने पुनः चक्र फेंका । अंकुश की प्रदक्षिणा देकर वह फिर लौट आया। तीसरी बार भी यही हुआ । विस्मित रह गये राम-लक्ष्मण दोनों। सामने खड़े लवण-अंकुश मुस्करा रहे थे।
राम-लक्ष्मण विचारमग्न हो गये- क्या भरतक्षेत्र में यही बलभद्र-वासुदेव हैं, हम नहीं ?
उसी समय सिद्धार्थ के साथ नारद ने आकर राम-लक्ष्मण से कहा
-अरे राम ! इस हर्ष के समय दुःखी क्यों हो? श्रीराम ने दुःखी स्वर में उत्तर दिया
-आपको भी हमारी हँसी उड़ाने का अच्छा अवसर मिला है : खूब व्यंग कर लीजिए आप भी !