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सप्तर्षियों का तपतेज ] ४२५ --क्या करें, अयोध्यापति ! आप जैसे श्रीमानों की सेवा तो करनी ही पड़ती है, अन्यथा आदर के स्थान पर निरादर मिलने लगेगा।-नारदजी ने भी मुस्कराकर उत्तर दिया। ' –निरादर और आपका ! किसमें इतना साहस है ?
--संसार में सभी तरह के लोग हैं । आदर भी करते हैं और निरादर भी । इस कन्या के पिता ने ही....." ___ नारदजी की बात अधूरी ही रह गई। लक्ष्मण बीच में ही बोल उठे
-~-कौन है इस कन्या का पिता? --वैताढयगिरि की दक्षिण श्रेणी का मदोन्मत्त राजा रत्नरथ ! -क्यों ? किस बात का घमण्ड है उसे ? . --न जाने किस बात का ? मैंने कहा था कि तुम्हारी पुत्री के योग्य वर अयोध्यापति लक्ष्मण हैं, बस इतनी सी बात पर उसके पुत्र मुझे मारने दौड़े। ' -क्या ? इतनी सी बात ? . -हाँ लक्ष्मण ! वह आपको इस योग्य ही नहीं समझता कि आपउसके जामाता (दामाद) वन सकें ? ___ यह सुनते ही लक्ष्मण उस कन्या को प्राप्त करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हो गये । कन्या सुन्दर थी, वैसे भी लक्ष्मण उसके प्रति अनुरागी हो चुके थे और अब......"अब तो बात योग्यता की आ गई। सामान्य व्यक्ति भी अयोग्यता का अपवाद नहीं सह सकता जिसमें लक्ष्मण तो वासुदेव थे और थे परम पराक्रमी । उनकी मुख मुद्रा · कठोर हो गई।
नारदजी की इच्छा पूरी हो चुकी थी । वहाँ से चल दिये ।