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________________ - सप्तर्षियों का तपतेज | ४२३ -गुरुदेव ! एक दिन मुझे भी आपको प्रतिलाभित करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाय। -राजन् ! श्रमणों को राजपिण्ड नहीं कल्पता। - मन मसोस कर रह गये शत्रुध्न ! उन्होंने फिर प्रार्थना की-पूज्य ! कुछ दिन और रुकिये।। -वर्षाकाल समाप्त हो गया है नरेश ! श्रमण साधु इससे अधिक नहीं ठहर सकते। -आपके निमित्त से प्रजा का वहुत उपकार हुआ है । सारी व्याधियाँ शान्त हो गई हैं । यदि फिर उठ खड़ी हुई तो...." __-पंच परमेष्ठी-देवाधि देव अर्हन्त भगवान की स्तुति, गुण चिन्तवन होता रहेगा तो कोई संकट नहीं आयेगा । सम्पूर्ण व्याधियाँ शान्त रहेंगी। ,, यह कहकर सातों ऋषि आकाश में उड़ गये । दूर जाते हुए वे ऐसे दिखाई देने लगे मानो आकाशस्थ सप्तर्षि मण्डल ही हो। ___शत्रुघ्न ने उनके कहे अनुसार पंच परमेष्ठी के गुण स्मरण करने की नगर भर में आजा करा दी और मथुरापुरी के बाहर चारों दिशाओं में उन मुनियों की रत्नमय प्रतिमायें स्थापित करा दी। xx रत्नपुर नगर वैताढयगिरि की दक्षिण श्रेणी में रत्न के समान सुशोभित होता था। राजा रत्नरथ वहाँ राज्य करता था। उसकी रानी चन्द्रमुखी से मनोरमा नाम की कन्या हुई । मनोरमा की सुन्दरता लोगों का मन हरण कर लेती-वह युवती हो चुकी थी। घूमते-घामते भ्रमणप्रिय नारद मुनि रत्नपुर के राजमहल में जा पहुंचे। बाल ब्रह्मचारी नारद से कोई परदा तो था नहीं। सर्वत्र उनका वे-रोक-टोक आवागमन था। देवर्षि को आकर प्रणाम किया
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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