________________
४२२ | जैन कथामाला (राम-कथा)
— गुरुदेव ! आप उन अकाल विहारी मुनियों की स्तुति इतने भाव-विभोर होकर क्यों कर रहे हैं ?
- भद्र ! वे महामुनि अकाल विहारी नहीं है ।
- चातुर्मास काल में मथुरा से अयोध्या आगमन और क्या है ? - अनेक ऋद्धियों के स्वामी, तपोतेज में अप्रतिम, अपनी चरण रज से भूतल को पवित्र करने वाले वे महामुनि श्रमणाचार का निर्दोप पालन कर रहे हैं ।
शिष्य परिवार अवाक् होकर गुरुदेव की ओर देख रहा था । महाराजश्री ने उनकी जिज्ञासा शान्त करते हुए कहा
- वे जंघाचारण ऋद्धि के धारक हैं । उनकी अवहेलना करना श्रीसंघ की ही अवज्ञा करना है ।
साधुओं को मुनियों के प्रति की गई अवहेलना के कारण खेद हुआ । उन्होंने महाराजश्री से प्रायश्चित्त ग्रहण करके अपना परचात्ताप प्रगट किया ।
यह समाचार सेठ अर्हद्दत्त को ज्ञात हुआ तो उसे घोर दुःख हुआ । 'मुनिश्री की अशातना मैंने की' यह विचार वार-बार उसके मानस को उद्वेलित करता रहता ।
सेठ अर्हद्दत्त कार्तिक शुक्ला सप्तमी के दिन मथुरापुरी पहुँचा और उनकी वन्दना करके अपनी अवज्ञा की क्षमा माँगी ।
निस्पृह जगत् हितकारी मुनि नाराज ही कब थे जो क्षमा करने का प्रश्न उठता । हाँ सेठ ने अवश्य अपने अवज्ञा दोष जन्य पाप का क्षय कर लिया ।
'सप्तर्पियों के प्रभाव से मथुरा की प्रजा की व्याधि शान्त हो गईं है' यह जानकर शत्रुघ्न ने भी मथुरा जाकर कार्तिकी पूर्णिमा के दिन उनकी वन्दना की । वन्दना के पश्चात् शत्रुघ्न ने मुनियों से विनय की