________________
सप्तर्षियों का तपतेज | ४२१ बन्दना करके सेठ विचारने लगा - 'ये कसे साधु हैं ? वर्षा ऋतु में विहार कर रहे हैं । जैन साधु तो ऐसे होते नहीं । इनसे पूछें ।' उसकी विचारधारा पलटी - ' कौन इनके मुँह लगे ? व्यर्थ का वितण्डावाद खड़ा हो जायगा । क्या लाभ है संक्लेश रूप परिणाम करने से ?"
तब तक सेठ की धर्मपत्नी ने साधुओं को भिक्षा से प्रतिलाभित कर दिया ।
भिक्षा ग्रहण करके सातों महर्षि अयोध्या में ही स्थित आचार्य चुति के उपाश्रय में पहुँचे । आचार्य ने तो गौरवतापूर्वक उनका स्वागत किया किन्तु उपाश्रय के अन्य साधुओं ने 'ये अकाल गमन करने वाले हैं' ऐसा समझकर वन्दना नहीं की ।
आचार्य द्युति ने मुनियों को उचित आसन दिया । मुनियों ने वहीं बैठकर पारणा किया। तत्पश्चात आचार्य द्युति ने पूछा --
- ऋषिवर! आप लोग कहाँ से आ रहे हैं और अब कहाँ जायेंगे ? आपने अपने चातुर्मास से किस भूखण्ड को पवित्र किया है ?
सप्तर्षियों ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया-
- आचार्यश्री ! हम मथुरा नगरी से आये हैं और वहीं वापिस जा रहे हैं ।
परस्पर नमन - वन्दन के पश्चात् सातों ऋषि उड़कर अपने स्थान को चले गये ।
-
आचार्य द्युति मुनियों को जाते हुए देखते रहे । जव मुनि आँख से ओझल हो गये तो वे भाव-विभोर होकर उनकी गुण-स्तुति करने लगे । शिष्य परिवार ने देखा कि गुरुदेव उन मुनियों की स्तुति कर रहे हैं तो वे आश्चर्यचकित होकर पूछने लगे---