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________________ रावण वध | ३६१ सभी वीरों ने अपने शस्त्र नीचे करके श्रीराम लक्ष्मण को हृदय से प्रणाम किया। सिर तुरन्त मा जाता । राम सौ सिर काटकर खेदखिन्न होने लगे तब उनके सारथि मातलि (यह सारथि और रथ इन्द्र द्वारा ही श्रीराम को दिया गया था) ने उनसे कहा कि 'आप अमोघ ब्रह्मवाण को छोड़िये । देवताओं ने इसके विनाश के लिए उसी वाण को निश्चित किया है।' तव श्रीराम ने अग्नि के समान तेजस्वी और वायु जैसे वेगवान बाण से रावण के वक्षस्थल को विदीर्ण कर दिया। [युद्धकाण्ड] (३) तुलसीकृत रामचरित मानस में युद्ध के सातवें रावण का दिन का जंववान, हनुमान, अंगद आदि के साथ युद्ध हुआ। इन वीरों ने रावण की बहुत दुर्गति की । वह कई वार अचेत हुआ और कई वार सचेत । तब रावण ने अपनी माया फैलाई। वह क्षण भर को अदृश्य हो गया और फिर करोड़ों रावणों के रूप में प्रगट हुआ। युद्ध-भूमि में चारों ओर रावण ही रावण दिखाई देने लगे। राक्षस और वानर सभी सुभट इस माया से संभ्रमित हो गये । वानरों ने भयभीत होकर वह विचित्रता राम को सुनाई तो उन्होंने कृपा करके एक शर का सन्धान किया और रावण की सारी माया काट दी। . अव युद्ध-भूमि में एक ही रावण रह गया। इसके पश्चात राम अपने वाणों से महावली रावण के सिर और । भुजाएँ काटने लगे । किन्तु वे पुनः-पुनः उग आते । इसी में रात हो गई। . युद्ध के आठवें दिन इस विचित्रता से खेदखिन्न होकर राम ने विभीपण की ओर देखा तो उसने बताया-'रावण की नाभि में अमृत कुण्ड है । उसी के कारण इसके सिर और भुजाएँ बार-बार उग आते हैं और इसका मरण नहीं होता।'
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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