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३६० | जैन कथामाला (राम-कथा)
वीरो ! संभ्रमित मत हो । ये श्री लक्ष्मण भरतक्षेत्र के आठवें वासुदेव हैं और इनके अग्रज श्रीराम आठवें वलभद्र । इनकी शरण में जाओ ।
यहीं सुग्रीव और हनुमान ने अपनी सिद्ध की हुईं गरुड़वाहिनी, सिंहवाहिनी, बन्धमोचनी, हननावरणी, चार विद्याएँ राम-लक्ष्मण को अलग-अलग दीं । ( श्लोक ५२१ ) यहाँ लक्ष्मण को शक्ति लगना, विशल्या का उपचार, आदि किसी भी घटना का उल्लेख नहीं है ।
(२) मायामयी सीता के शिरच्छेद की घटना का वर्णन वाल्मीकि रामायण में तनिक विस्तार से किया गया है । वहाँ यह माया इन्द्रजित की बताई गई है—
राक्षसों की बड़ी सेना लेकर इन्द्रजित लंका के पश्चिम द्वार से निकला । उस समय खोटी बुद्धि वाले राक्षस ने मायामयी सीता अपने रथ पर विठा लो । सीता को देखकर वानर उसके विरुद्ध शस्त्र प्रयोग भी न कर सके क्योंकि सीता के घायल हो जाने का भय था । उसने उस मायामयी सीता का सिर काटकर वानरों के समक्ष फेंक दिया. और कहा – 'अब तुम्हारा युद्ध करना व्यर्थ है ।'
हनुमानजी के मुख से यह बात सुनकर राम मूच्छित हो गये । तव विभीषण ने बताया कि यह राक्षसों की चालाकी है । आप इस पर विश्वास मत करिए ।
विभीषण के वचनों से राम सन्तुष्ट हो गये और पुनः युद्ध करने को तत्पर हुए ।
राम के द्वारा [युद्धकाण्ड ]
लक्ष्मण के द्वारा इन्द्रजित ( द्वन्द्व युद्ध में ) और कुम्भकर्ण और रावण का वध रण-भूमि में ही हुआ है । राम ने रावण का वध ब्रह्मत्राण से किया । जब तीरों से रावण का सिर काटने लगे तो कटे सिर के स्थान पर दूसरा
[ युद्धकाण्ड ]
राम अपने