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३०८ | जैन कथामाला (राम-कथा)
सीता के पास से उठकर विभीषण सीधा रावण के पास पहुँचा । उसको नमस्कार करके कहने लगा
- तात ! यह क्या अधर्म कर दिया आपने ? आपके इस कार्य से हमारा कुल कलंकित हो जायगा । तुरन्त सीता को राम-लक्ष्मण के पास छोड़ आओ ।
- सीता को छोड़ आऊँ ? इस कार्य से कुल कलंकित हो जायगा ? क्या कायरता की वात कर रहे हो, विभीषण ! - रावण ने दर्पपूर्ण स्वर में उत्तर दिया ।
- दुर्लध्यपुर विजय के समय नलकूवर की पत्नी उपरम्भा का
विशेष - उत्तर पुराण में सीता पर उपसर्ग तथा विभीषण से उसकी भेंट का कोई उल्लेख नहीं है । मन्दोदरी का रावण के साथ आने का उल्लेख है | यहाँ मन्दोदरी का दूसरा ही रूप चित्रित किया गया है । जब रावण सीता पर कुपित होता है तो वह कहती है
- हे स्वामी ! सतियों का तिरस्कार करने से आपकी समस्त विद्याएँ नष्ट हो जायेंगी । आप पक्षरहित (पंखहीन) पक्षी के समान हो जायेंगे । इसलिए आप सीता को छोड़ दीजिए (श्लोक ३४२-३४५) ।
रावण के चले जाने के बाद उसके हृदय में मातृत्व भाव जाग्रत हो जाता है । वह कहती है - हे कमलनेत्रे ! तू मेरी पुत्री ही जान पड़ती है ( श्लोक ३५१ ) | यह विद्याधरों का स्वामी (रावण) तुझे पत्नी बनाना चाहता है । परन्तु हे पुत्री ! तू मर जाना किन्तु उसकी इच्छा पूरी मत करना (श्लोक ३५२) । सीता को भी ऐसा महसूस हुआ मानो उसकी माता ही मिल गई हो उसके नेत्रों में आंसू भर आये (श्लोक ३५५) । हे पुत्री ! तू आहार ग्रहण कर क्योंकि शरीर का साधन भोजन ही है (श्लोक ३५७) । यदि तुझे अपने पति श्रीराम के दर्शन न हो सकें तो घोर तपश्वरण करना (श्लोक ३५६ ) |