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सीता पर उपसर्ग | ३०७ पुकार) सुनाई दिया। मैंने पति को उसकी सहायता के लिए भेज दिया । बस मुझे अकेली देखकर लंकापति यहाँ उठा लाया।
सीता ने अपनी बात समाप्त कर दी। चिन्तित होकर विभीपण उठने लगा तो सीता ने कहा
-परस्त्री-सहोदर विना एक शब्द भी कहे उठ कर चला जा रहा है !
विभीषण को जैसे स्थिति का भान हुआ। उसे अपनी उपेक्षा पर लज्जा आई । वोला--
-चिन्ता मत करो जानकी ! तुम्हारे वचाव का कोई न कोई उपाय निकल ही आवेगा।
--आज की रात्रि ही बड़ी भयंकर थी, आगे न जाने क्या होगा? -सीता ने आशंका व्यक्त की।
-होगा कुछ नहीं । रावण यह इन्द्रजाल भले ही दिखा ले किन्तु वलात्कार नहीं कर सकता।
-क्यों ?
-उसने स्वर्णतुंग पर्वत पर केवली 'अनन्तवीर्य के समक्ष यह प्रतिज्ञा ली है कि 'नहीं इच्छती परस्त्री के साथ कभी रमण नहीं करूंगा।' अतः तुम्हारे शील को कोई खतरा नहीं।
-रावण अपनी प्रतिज्ञा तोड़ भी सकता है ?
-असम्भव ! वह अपनी प्रतिज्ञा का पालन प्राण देकर भी करेगा।
विभीषण की बातों से सीता आश्वस्त हो गई । उसको विश्वास हो गया कि उसके शील की रक्षा स्वयं रावण की प्रतिज्ञा करेगी। आवश्यकता है दृढ़ रहने की और सुमेरु के समान अचल तो वह थी ही।