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२५० | जैन कथामाला (राम-कथा) ___ गन्ध वृक्ष से उतरा और मुनि चरणों के समीप आ बैठा। ध्यानपूर्वक अपलक दृष्टि से उन्हें देखने लगा । पक्षी के नेत्रों के समक्ष पूर्वभव की घटनाएं चित्रपट की भाँति घूम गईं। वह अचेत होकर भूमि पर लुढ़क गया । सीता के जल-सिंचन से सचेत हुआ तो मुनिश्री के चरणों में विह्वल होकर लोटने लगा।
तत्काल चमत्कार सा हुआ । गन्ध के शरीर से रोगों की दुर्गन्ध निकल गई और काया कंचन के समान जगमगाने लगी। रूप ही वदल गया-कहाँ वह दुर्गन्धयुक्त, वेबस, लाचार, क्षीणकाय और, कहाँ सुन्दर, बलिष्ठ और सुदृढ़ शरीर ! उसके मस्तक पर रत्नांकुर के समान सुन्दर जटाएँ लहराने लगीं।'
इस परिवर्तन को देखकर राम-सीता-लक्ष्मण तीनों चमत्कृत हो गये। विस्मित होकर राम ने पूछा
-प्रभो ! अभी-अभी तो यह पक्षी इतना विरूप था और अब क्षण भर में सुवर्ण जैसी कान्ति वाला कैसे हो गया ?
-इसको अपने शुभयोग से स्पर्शोषधि ऋद्धि का निमित्त प्राप्त हो गया।
राम समझ गये कि मुनि स्पर्शोपधि ऋद्धि के धारी हैं । जैन श्रमण अपनी ऋद्धियों को न तो स्वयं कहते हैं और न ही उनका प्रयोग करते हैं। किसी दीन-दुःखी प्राणी के लाभान्वित होने पर
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१ (क) जटाएँ लहराने के कारण ही उस पक्षी का नाम जटायु पड़ा।
-(त्रिषष्टि शलाका ७१५ गुजराती अनुवाद, पृष्ठ ६५) (ख) वाल्मीकि रामायण में जटायु के मुख से कहलवाया गया है
रघुनन्दन ! महर्षि कश्यप की पत्नी विनता के गर्भ से दो पुत्र हुए-गरुड़ और अरुण । मैं अरुण का पुत्र हूँ। हम दो भाई हैं । सम्पाति मेरा बड़ा भाई है और मैं जटायु हूँ। (अरण्यकाण्ड)