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________________ पांच सौ श्रमणों की बलि | २५१ ही लोग उनकी ऋड़ियों को जान पाते हैं। राम ने भक्तिपूर्वक पुनः प्रश्न किया -गुरुदेव ! गीध पक्षी तो मांस भक्षी और अल्प वुद्धि वाला होता है । यह आपके चरणों में आकर शान्त क्यों हो गया ? -इसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया है, राम ! इसी कारण इसकी प्रवृत्ति शान्त हो गई है। -पूज्य मुझे भी इसके पूर्व-जन्मों के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हो. -तो सुनो।-मुनिराज कहने लगेयहीं पहले कुम्भकारकट नाम का एक नगर था। उस नगर का राजा था यही पक्षी और इसका नाम था दण्डक । .. उसका समकालीन नरेश था श्रावस्तीपति जितशत्रु । जितशत्रु राजा की धारणी नाम की रानी से स्कन्दक नाम का पुत्र और पुरन्दरयशा पुत्री हुई। पुरन्दरयशा का विवाह कुम्भकारकटनरेश दण्डक के साथ सम्पन्न हुआ था। दण्डक ने एक बार किसी कार्य से अपने दूत पालक को राजा जितशत्रु के पास भेजा। पालक ब्राह्मण था और अपने मिथ्याज्ञान का बहुत अभिमानी। जिस समय पालक श्रावस्ती में पहुंचा तो राजा जितशत्रु और स्कन्दक अन्य अनेक विद्वानों के साथ धर्म-चर्चा में लीन थे । पालक भी वहीं पहुंच गया। धर्मचर्चा में वाद-विवाद करने के लिए उसकी जिह्वा खुजलाने लगी। अपनी योग्यता और विद्वत्ता की धाक जमाने के लिए वह जिनधर्म में व्यर्थ के दूषण लगाने लगा। स्कन्दक ने सत्य हेतुओं द्वारा उसके तर्को का उचित उत्तर दे दिया। पालक स्वयं को अपमानित समझने लगा। बाद में पराजित होकर उसने अपने हृदय में शत्रुता की गाँठ वाँध ली।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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