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रात्रिभोजन-त्याग की शपथ | २३७ -प्रिये ! विश्वास करो। मैं अवश्य लौटूंगा और तुम्हें साथ लेकर ही अयोध्या जाऊँगा।
वनमाला मौन ही रही । उसने कुछ भी उत्तर न दिया। लक्ष्मण . ही पुनः बोले__-क्या मेरे वचनों पर विश्वास नहीं है ?
-आप पर तो विश्वास है, पूर्ण विश्वास ! किन्तु अपने भाग्य पर नहीं । वडी कठिनाई से तो आपके दर्शन हुए और अब आप छोड़कर जा रहे हैं......! -वनमाला के स्वर में निराशा थी।
-नहीं ! नहीं !! निराश मत हो । मेरा वचन पत्थर की लकीर है। यदि मैं लौटकर तुम्हें साथ न लूँ तो 'मुझे रात्रिभोजन का पाप लगे।'
-ऐसी कठिन शपथ मत लीजिए। आपके वियोग का दु:ख सह लूंगी । आप जाइये और भातृ-सेवा व्रत का पालन कीजिए। -वनमाला का स्वर कातर हो गया था ।
वनमाला की स्वीकृति मिल गई।
राम-लक्ष्मण और जानकी वहां से चलकर अनेक वनों को पार करते हए क्षेमांजलि नगरी के समीप आ पहुंचे। वहाँ वन के फलफूलों का सबने आहार किया और राम की आज्ञा से लक्ष्मण नगर में गये । वहां उन्हें एक घोपणा सुनाई पड़ी-'जो पुरुष राजा का शक्तिप्रहार सहन कर लेगा, उसके साथ राजकुमारी का विवाह कर दिया जायेगा।'
लक्ष्मण को इस घोषणा में राजा के घमण्ड का आभास हुआ। पराक्रमी पुरुपों का स्वभाव होता है कि वे किसी का गर्व नहीं सह सकते । लक्ष्मण ने भी राजा का गर्व तोड़ने का विचार किया। उन्होंने , एक व्यक्ति से पूछा