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२३६ | जैन कथामाला (राम-कथा) हैं तो वनमाला मरने को तैयार है । उन्होंने युक्ति द्वारा उसे समझाने की चेष्टा की
-बनमाला ! तुम मुझे सुखी देखना चाहती हो ?
—यह भी कोई पूछने की वात है। ---तो मेरे भातृसेवा के व्रत में वाधक मत वनो। --मैं वाधक कब बन रही हूँ ? विस्मित से लक्ष्मण उसे देखने लगे और वोले
-तुम्हारा यह हठ ? · वनमाला ने अपनी इच्छा स्पष्ट की--
--आर्य ! आप मुझे भी साथ ले चलिए । मेरी इच्छा भी पूर्ण हो जायगी और आपका व्रत भी भंग न होगा।
इस अप्रत्याशित सुझाव के लिए लक्ष्मण तैयार नहीं थे। कुछ देर तक सोचते रहे । उनकी युक्ति निरर्थक हो चुकी थी। उन्होंने भावपूर्ण स्वर में कहा
-सुन्दरी ! तुम्हें साथ ले जाने से मेरी भातृ-सेवा में व्यवधान पड़ जायेगा।
-तो क्या नारी पुरुष के कर्तव्य पालन में बाधक ही है ? .
-नहीं, नारी से तो पुरुप को पूर्णता ही प्राप्त होती है, किन्तु इस समय स्थिति भिन्न है ।
-वह क्या ?
-तुम साथ चलोगी तो मेरा तुम्हारे प्रति भी कुछ कर्तव्य हो जायगा और मेरी एकनिष्ठ भातृ-सेवा में विघ्न पड़ेगा। -लक्ष्मण ने समझाया। . लक्ष्मणजी की इस वात पर वनमाला मनन करने लगी। उसे मौन देखकर लक्ष्मण ही आगे वोले