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२२० / जैन कथामाला (राम-कथा)
-~-तात ! आप देवी के साथ यहीं ठहरें तब तक मैं इन कामी कुत्तों की खवर लेता हूँ।
लक्ष्मण की भ्रकुटी तन चुकी थी। उन्होंने राम के आदेश की भी प्रतीक्षा नहीं की । आगे बढ़कर धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और धनुष्टंकार कर दी।
धनुष्टंकार की कठोर ध्वनि दिशाओं में गंज गई । म्लेच्छ सैनिक उस शब्द को सह न सके और मूच्छित होकर गिर पड़े जो खड़े रह भी गये उनके दिल धड़कने लगे। काक ने सोचा-'जिसका धनुष्टंकार ही इतना भयानक है उसके वाणों की तीव्रता का क्या ठिकाना ?' वह तुरन्त श्रीराम के चरणों में जा गिरा और पुकार करने लगारक्षा ! रक्षा करो, स्वामी ।
राम ने उसे क्षमा करके अपनी शरण में ले लिया और पूछा-- -तुम कौन हो ? और इस निंद्य कर्म में क्यों प्रवृत्त हुए ? काक कहने लगा
स्वामी ! मैं कौशाम्बीपुर के ब्राह्मण वैश्वानर और उसकी पत्नी सावित्री का पुत्र हूँ। मेरा नाम इन्द्रदेव है । वचपन से ही क्रूर कर्म में प्रवृत्त रहा । ऐसा कोई पाप नहीं जो मैंने न किया हो। चोरी, परस्त्रीगमन आदि सभी पापों का मुझे व्यसन हो गया ।
एक वार सैनिकों ने मुझे पकड़ लिया और शूली पर ले जाकर खड़ा कर दिया। उसी समय कोई दयालु श्रावक वहाँ से निकला। उसे मेरी दीन दशा पर दया आ गई। उसने मुझे दण्ड का धन देकर छुड़ा दिया और कहा-अव कभी चोरी मत करना। ___ मैं वहाँ से बचकर भटकता-भटकता यहाँ आ गया । अव मैंने चोरी तो छोड़ दी और लूटमार करना प्रारम्भ कर दिया । कभीकभी राजाओं को पकड़ लाता हूँ और धन लेकर उन्हें छोड़ देता हूँ।